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प॒दं दे॒वस्य॒ नम॑सा॒ व्यन्तः॑ श्रव॒स्यवः॒ श्रव॑ आप॒न्नमृ॑क्तम्। नामा॑नि चिद् दधिरे य॒ज्ञिया॑नि भ॒द्रायां॑ ते रणयन्त॒ संदृ॑ष्टौ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

padaṁ devasya namasā vyantaḥ śravasyavaḥ śrava āpann amṛktam | nāmāni cid dadhire yajñiyāni bhadrāyāṁ te raṇayanta saṁdṛṣṭau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒दम्। दे॒वस्य॑। नम॑सा। व्यन्तः॑। श्र॒व॒स्यवः॑। श्रवः॑। आ॒प॒न्। अमृ॑क्तम्। नामा॑नि। चि॒त्। द॒धि॒रे॒। य॒ज्ञिया॑नि। भ॒द्राया॑म्। ते॒। र॒ण॒य॒न्त॒। सम्ऽदृ॑ष्टौ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:1» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:35» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (व्यन्तः) व्याप्त हैं विद्या और क्रियायें जिनमें ऐसे और (श्रवस्यवः) अपने अन्न की इच्छा करनेवाले आप लोग (नमसा) अन्न आदि वा वज्रवच्छेदकत्वगुण से (देवस्य) सब में प्रकाशमान अग्नि के (पदम्) प्राप्त होने योग्य (अमृक्तम्) शुद्धि से रहित (श्रवः) पृथिवी के अन्न आदि को (आपन्) प्राप्त होते हैं तथा इस सब में प्रकाशक के (यज्ञियानि) यज्ञ की सिद्धि के लिये योग्य (नामानि) जलों वा संज्ञाओं को (चित्) निश्चय से (दधिरे) धारण करें और (ते) वे (भद्रायाम्) कल्याणकारक (सन्दृष्टौ) उत्तम दर्शन में (रणयन्त) रमें वा रमण करावें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों के गुण कर्म्म और स्वभावों को जान कर कार्यों को सिद्ध करते हैं, वे अतुल आनन्द को प्राप्त कर सुख के विषय में रमते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं विज्ञातव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! व्यन्तः श्रवस्यवो भवन्तो नमसा सह वर्त्तमानस्य देवस्याग्नेः पदममृक्तं श्रव आपन्। अस्य देवस्य यज्ञियानि नामानि चिद्दधिरे ते भद्रायां सन्दृष्टौ रणयन्त ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पदम्) प्रापणीयम् (देवस्य) सर्वेषु प्रकाशमानस्य (नमसा) अन्नादिना वज्रवच्छेदकत्वेन गुणेन वा (व्यन्तः) व्याप्तविद्याक्रियाः (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छवः (श्रवः) पृथिव्यन्नादिकम् (आपन्) आप्नुवन्ति (अमृक्तम्) शुद्धिरहितम् (नामानि) जलानि संज्ञा वा (चित्) अपि (दधिरे) धरेयुः (यज्ञियानि) यज्ञसिद्धयेऽर्हाणि (भद्रायाम्) कल्याणकर्याम् (ते) (रणयन्त) रमेरन् रमेयुर्वा (सन्दृष्टौ) सम्यग्दर्शने ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्न्यादिपदार्थस्य गुणकर्म्मस्वभावान् विदित्वा कार्य्याणि साध्नुवन्ति तेऽतुलमानन्दं प्राप्य सुखे रमन्ते ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थांचा गुण, कर्म, स्वभाव जाणून कार्य करतात ती अतुल आनंद प्राप्त करून सुखात राहतात. ॥ ४ ॥